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मितव्ययता का आदर्श: स्वामी दयानन्द की रेलयात्रा’-मनमोहन कुमार आर्य

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18 Apr 15
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महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 में प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती के यहां लगभग 3 वर्ष वैदिक व्याकरण एवं आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन समाप्त कर वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के क्षेत्र में कदम रखा था। इसके बाद उन्होने अपनी मृत्यु 30 अक्तूबर, 1883 से कुछ समय पूर्व तक सारे देश का भ्रमण कर प्रचार किया। देश के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में वह सड़़क मार्ग के अतिरिक्त रेल यात्रायें भी करते थे। यात्रा में उनके साथ दो से चार लोग अतिरिक्त हुआ करते थे जिसमें प्रायः दो वेद भाष्य व उनके ग्रन्थों के लेखक, एक पाचक और कहार होता था। यह लोग और स्वामीजी का साहित्य व ग्रन्थ आदि उनके साथ होते थे। जिस स्थान पर भी वह जाते थे वहां के कुछ लोग पहले से उनके सम्पर्क में होते थे। वह लोग प्रार्थना करते थे कि महर्षि दयानन्द उनके स्थानों पर पधारें और वहां के लोगों के अज्ञान व अन्धविश्वास आदि दूर करने के लिए उपदेश व वार्तालाप आदि द्वारा वैदिक धर्म का प्रचार करें। परस्पर पत्राचार और प्रमुख व्याक्तिों के प्रतिनिधियों व उनके स्वयं उनके पास जाकर भेंट करने व उनके प्रवचन सुनने के बाद वार्तालाप में यात्रा का निमंत्रण उनके भक्तगण भी प्रायः उनको दिया करते थे। आर्यजगत व इतर समाचारों पत्रों में भी उनके प्रचार कार्यों के समाचार प्रकाशित होते रहते थे। इससे भी देश के लोगों को महर्षि दयानन्द के कार्यों का ज्ञान होता था।

स्वामी दयानन्द जी ने 23 अक्तूबर से 30 अक्तूबर, 1879 तक उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर नगर में प्रवास किया था। इस प्रवास के पूर्व से वह संग्रहणी रोग से पीडि़त थे। यह रोग ठीक तो हो गया था परन्तु यहां उन्हें एक दिन के अन्तर से ज्वर आता था। इसके साथ उनको बार बार शौच आने का अतिसार रोग भी काफी समय से रहा था। यहां मिर्जापुर में स्वामी जी के साथ तीन पण्डित, एक साधु और एक कहार सेवक के रूप में साथ थे। दानापुर (बिहार) ले जाने के लिए वहां से स्वामीजी के एक भक्त श्री मक्खन लाल जी उनके पास आये हुए थे। उन्होंने यहां से 28 अक्तूबर, 1879 को दानापुर के अपने सहयोगियों को महर्षि दयानन्द की यात्रा का विवरण दिया था। यात्रा की योजना इस प्रकार तय हुई थी कि स्वामी जी मिर्जापुर से बृहस्पतिवार 30 अक्तूबर 1879 को चलने के लिए उस गाड़ी में जो नौ बजकर बत्तीस मिनट पर वहां से चलती है तथा दानापुर को उसी दिन साढ़े तीन बजे सायंकाल को पहुंचती है, चलेंगे। इस क्रम में आगे स्वामी जी के स्वास्थ्य व उसके अनुरूप भोजन की व्यवस्था के विषय में लिखा था। पत्र में श्री मक्खनलाल लिखते हैं कि पहले स्वामी जी ने कहा था कि पैसेंजर ट्रेन जो यहां से साढ़े बारह बजे चलती है और दानापुर साढ़े नौ बजे रात्रि पहुंचती है उसकी प्रथम श्रेणी में चलेंगे क्योंकि उसमें शौच करने की सुविधा रहती है परन्तु पुनः विचार करने के बाद फिर कहा कि इसमें पन्द्रह रूपये साढ़े सात आना भाड़ा लगता है जो कि अधिक है इसलिए वह डाक गाड़ी में दूसरी श्रेणी में ही चलेंगे जिसका किराया सात रूपये ग्यारह आने और नौ पाई है तथा जिसमें शौचालय भी है। इस पत्र के प्राप्त होते ही आप दानापुर में बाबू गुलाबचन्द का बंगला खाली रखिये। जितने सदस्य रेलवे दानापुर के रेलवे स्टेशन पर आ सकें, साढ़े तीन बजे उपस्थित रहें क्योंकि स्वामीजी व अन्य लोग साढ़े तीन बजे पहुंच जाएंगे।

महर्षि दयानन्द मिर्जापुर में अस्वस्थ थे। उनको ज्वर भी रहता था और अनेक बार शौच भी जाना पड़ता था। उन्होंने श्री मक्खनलाल जी को यह भी स्पष्ट कर दिया था कि दानापुर जाकर वह व्याख्यान व उपदेश कर सकेंगे या नहीं, कह नहीं सकते। स्वास्थ्य की इस अवस्था में भी उन्होंने उन दिनों प्रथम श्रेणी में यात्रा करने के विचार को इसलिए त्याग दिया था कि दूसरी श्रेणी में यात्रा करने पर लगभग 8 रूपयों की बचत होगी। हमें महर्षि दयानन्द के जीवन का यह उदाहरण मितव्ययता के साथ साथ अर्थ शुचिता का बोध कराने वाला भी लगता है। देहरादून में आने के बाद जब वह यहां से सहारनपुर के लिए लौटते हैं तो व्यय के निमित्त उनको 40 रूपये भेंट किये जाते हैं जिन्हें लेने में वह संकोच करते हैं और 10 रूपये तो पं. कृपाराम जी (स्वामी समर्पणानन्द पूर्व नाम पं. बुद्धदेव विद्यालंकार के नाना) को आग्रहपूर्वक लौटा देते हैं जिससे उन पर व्ययभार अधिक न पड़े। मिर्जापुर से दानापुर की यात्रा में अस्वस्थ होने पर भी महर्षि दयानन्द कष्ट सहनकर 8 रूपये की बचत करते हैं। स्वामी दयानन्द जी के जीवन का यह उदाहरण आजकल के उनके अनुयायियों व आर्यसमाजों व सभी आर्य संस्थाओं के संन्यासियों, नेताओं, अधिकारियों, उपदेशकों, भजनोपदेशकों, प्रचारकों एवं कार्यकर्ताओं आदि के लिए प्रेरणादायक होना चाहिये जो बात-बात पर हवाई यात्रायें करते हैं या रेल में प्रथम व द्वितीय वातानुकूलित यान श्रेणी मे ंयात्रा करते थे। यह लोग सड़क यात्राओं में भी सुविधाजनक निजी व किराये की गाडि़यों में चलते हैं। किस संस्था को दान में कितनी धनराशि प्राप्त हुई व उनकी माली हालत क्या है, इसका वार्षिक विवरण व चिट्ठा भी दानियों व आर्यसमाज के प्रेमियों को विदित नहीं होता। इस मनोवृति के कारण भी आर्य समाज का प्रचार व प्रभाव अपेक्षा के अनुरूप बढ़ नहीं रहा है। महर्षि दयानन्द के जीवन में यदि यह सादगी व मितव्ययता न होती और यदि वह तप का अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत न करते तो हमें विश्वास है कि महर्षि दयानन्द के प्रचार का वह प्रभाव कदापि न होता जो कि हुआ था। हम आशा करते हैं कि आर्य समाज के नेता, संन्यासी, विद्वान, प्रचारक व कार्यकत्र्ता महर्षि के जीवन की इस घटना से प्रेरणा लेकर अपना सुधार करेंगे। इसके साथ ही सभी को पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द, महात्मा हंसराज जी के जीवन के आदर्श उदाहरणों को अपने सम्मुख रखना चाहिये व इन सभी का अनुकरण भी करना चाहिये। सम्भवतः ऐसा करने पर आर्य समाज का साधारण जनों में कुछ प्रभाव बढ़ सके। हमने यह लेख राग द्वेष की भावना से मुक्त होकर लिखा है। हम आशा करते हैं कि इसे हमारे आशय के विपरीत नहीं लिया जायेगा।
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