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--काषी षास्त्रार्थ की १४८वी वर्शगांठ--

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17 Nov 17
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ऋशि दयानन्द ने अपने जीवन में जो महान् कार्य किए उनमें से एक काषी के दुर्गाकुण्ड स्थित आनन्द बाग में लगभग ५०-६० हजार लोगों की उपस्थिति में ’मूर्तिपूजा वेदसम्मत नहीं है‘, विशय पर उनका षास्त्रार्थ भी था जिसमें स्वामी जी विजयी हुए थे। यह षास्त्रार्थ आज से १४८ वर्श पूर्व १६ नवम्बर, १८६९ को हुआ था। इस षास्त्रार्थ में दर्षकों में दो पादरी भी उपस्थित थे। जिले के अंग्रेज कलेक्टर षास्त्रार्थ का आयोजन रविवार को कराने के इच्छुक थे जिससे वह भी इस षास्त्रार्थ में उपस्थित रह सके। उनके आने से पण्डित कानून हाथ में लेकर अव्यवस्था व मनमानी नहीं कर सकते थे, अतः काषी नरेष श्री ईष्वरीप्रसाद नारायण सिंह ने इसे मंगलवार को आयोजित किया था। काषी के सनातनी पौराणिक पण्डितों को यद्यपि इस षास्त्रार्थ में मूर्तिपूजा को वेदसम्मत सिद्ध करना था परन्तु पौराणिकों की वेद में गति न होने और मूर्तिपूजा का वेदों में कहीं विधान न होने के कारण वह षास्त्रार्थ में वेदों व प्रमाणिक ग्रन्थों का कोई प्रमाण नहीं दे सके थे। वह विशय को बदलते हुए विशयान्तर की बातें करते रहे। यह षास्त्रार्थ सायं ४ से ७ बजे तक लगभग ३ घंटे हुआ था। इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि स्वामी दयानन्द ने पूर्व कभी किसी विद्वान ने मूर्तिपूजा के वेद सम्मत न होने पर षंका वा विष्वास किया हो। महाभारत काल के बाद वह पहले व्यक्ति ही थे जिन्होंने मूर्तिपूजा का खण्डन करने के साथ उसे वेद विरुद्ध घोशित किया था। स्वामी षंकराचार्य जी की पुस्तक विवेक चूडामणि में भी ईष्वर के सर्वव्यापक व निराकार स्वरूप का वर्णन किया गया है परन्तु उसमें मूर्तिपूजा के वेदसम्मत होने या न होने पर षंका नहीं की गई है और न किसी को षास्त्रार्थ की चुनौती ही दी गई है। ऋशि दयानन्द को परमात्मा से अति उच्च कोटि की परिमार्जित दिव्य बुद्धि व विवेक प्राप्त हुआ था। उन्होंने न केवल मूर्तिपूजा को अवैदिक घोशित कर उसका खण्डन किया अपितु देष की उन्नति में सर्वाधिक बाधक, देष के पराभव, पराधीनता एवं सभी बुराईयों का कारण मूर्तिपूजा को ही माना है। उनके अनुसार ईष्वर पूजा के स्थान पर मूर्तिपूजा ईष्वर प्राप्ति का साधन नहीं है अपितु यह एक ऐसी गहरी खाई है कि जिसमें मूर्तिपूजक गिर कर नश्ट हो जाता है। यह ज्ञातव्य है कि कोई भी कार्य यदि विधि पूर्वक न किया जाये और साधक को इश्ट देव का सच्चा स्वरूप व प्राप्ति की विधि ज्ञात न हो तो वह कभी ईष्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। यह आष्चर्य की बात है कि भारत में उपासना के लिए योग और सांख्य दर्षन जैसे ग्रन्थ होते हुए काषी के षीर्श विद्वान भी मूर्तिपूजा का समर्थन करते थे और स्वयं भी ईष्वर के यथार्थ गुणों के आधार पर यम-नियम का पालन तथा धारणा एव ध्यान न करते हुए पाशाण व धातुओं की बनी हुई मूर्तियों को धूप व नैवेद्य देकर ईष्वर पूजा की इतिश्री समझते थे। यह उनकी घोर अविद्या थी। आज भी हमारे पौराणिक सनातनी भाई मूर्तिपूजा करते हैं। उनके विवेकहीन अनुयायी भी उनका अनुकरण व अनुसरण करते हुए विधिहीन तरीके से पूजा करके ईष्वर के पास जाने के स्थान पर उससे दूर हो जाते हैं जिसकी हानि उन्हें इस जन्म व भावी जन्मों में उठानी पडती है। जो भी मनुश्य मूर्तिपूजा करेगा वह भी इससे होने वाली हानियों को उठायेगा। इसका उल्लेख ऋशि दयानन्द अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाष में मूर्तिपूजा में सोलह प्रकार के दोशों को सप्रमाण व तर्क के साथ किया है। मूर्तिपूजा पर स्वामी दयानन्द जी के कुछ विचारों की चर्चा भी कर लेते हैं। उनके अनुसार मूर्तिपूजा का आरम्भ जैन मत से हुआ। सत्यार्थप्रकाष में वह लिखते हैं कि जैनियों ने मूर्तिपूजा अपनी मूर्खता से चलाई। जैनियों की ओर से वह एक कल्पित प्रष्न प्रस्तुत करते हैं कि षान्त ध्यानावस्थित बैठी हुई मूर्ति देख के अपने जीव वा आत्मा का भी षुभ परिणाम वैसा ही होता है। इसका उत्तर देते हुए स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि आत्मा वा जीव चेतन और मूर्ति जड गुण वाली है। क्या मूर्ति की पूजा करने से जीवात्मा भी अपने ज्ञान आदि गुणों से क्षीण व षून्य होकर जड हो जायेगा? स्वामी जी कहते हैं कि मूर्तिपूजा केवल पाखण्ड मत है तथा मूर्तिपूजा जैनियों ने चलाई है। स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाष में चौदह समुल्लास लिखे हैं। बारहवां समुल्लास जैन मत की मान्यताओं की समीक्षा पर लिखा है। उस समुल्लास में भी स्वामीजी ने जैन मत की मूर्तिपूजा विशयक मान्यताओं का सप्रमाण खण्डन किया है।

मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए स्वामीजी अनेक प्रबल तर्क देते हैं। वह कहते हैं कि जब परमेष्वर निराकार, सर्वव्यापक है तब उस की मूर्ति ही नहीं बन सकती और जो मूर्ति के दर्षनमात्र से परमेष्वर का स्मरण होवे तो परमेष्वर के बनाये पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि अनेक पदार्थ, जिन में ईष्वर ने अद्भूत रचना की है, क्या ऐसी रचनायुक्त पृथिवी, पहाड आदि परमेष्वर रचित महामूर्तियां कि जिन पहाड आदि से वे मनुश्यकृत मूर्तियां बनती हैं, उन को देख कर परमेष्वर का स्मरण नहीं हो सकता? जो मूर्तिपूजक कहते हैं कि मूर्ति के दखने से परमेष्वर का स्मरण होता है, उनका यह कथन सर्वथा मिथ्या है, इसलिए कि जब वह मूर्ति उनके सामने न होगी तो परमेष्वर के स्मरण न होने से वह मनुश्य एकान्त पाकर चोरी, जारी आदि कुकर्म करने में प्रवृत्त भी हो सकते हैं। वह क्योंकि जानते हैं कि इस समय यहां उन्हें कोई नहीं देखता। इसलिये वह मूर्तिपूजक अनर्थ करे विना नहीं चूकता। इत्यादि। ऐसे अनेक दोश पाशाणादि मूर्तिपूजा करने से सिद्ध होते हैं। यह भी बता दें कि काषी षास्त्रार्थ से पूर्व वहां के षीर्श विद्वान पण्डितों ने अपने षिश्य व विद्वानों को स्वामी दयानन्द जी की विद्या की परीक्षा वा जानकारी लेने के लिए गुप्त रूप से उनके पास भेजा था। यह विद्वान थे रामषास्त्री, दामोदर षास्त्री, बालषास्त्री और पं. राजाराम षास्त्री आदि। यह विद्वान स्वामी जी के पास उनका षास्त्रीय ज्ञान का स्तर जानने के लिए आये थे। काषी के पण्डित अपने पक्ष की निर्बलता को जानते थे। इसलिए वह राजा ईष्वरीप्रसाद नारायण सिंह के कहने पर भी षास्त्रार्थ के लिए उत्साहित नहीं हो रहे थे। इस कारण राजा ने उन्हें प्रत्यक्ष रूप से स्वामी दयानन्द जी से षास्त्रार्थ करने के निर्देष व आज्ञा दी थी। राजा जी ने मूर्तिपूजा से उन्हें प्राप्त होने वाली सुख सुविधाओं व धन वैभव का भी हवाला भी दिया था। यह भी ज्ञातव्य है कि स्वामी जी के वेद प्रचार व मूर्तिपूजा के खण्डन से काषी के लोग बडी संख्या में प्रभावित हो रहे थे और मूर्तिपूजा करना छोड रहे थे। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी काषी नरेष व पण्डितों पर पड रहा था परन्तु मूर्तिपूजा के पक्ष में षास्त्रीय प्रमाण न होने के कारण वह किंकर्तव्यविमूढ बने हुए थे। काषी के प्रमुख पण्डित पं. बालषास्त्री आदि ने अपने षिश्यों पं. षालिग्राम षास्त्री, पं. ढुंढिराज षास्त्री धर्माधिकारी, पं. दामोदर षास्त्री तथा पं. रामकृश्ण षास्त्री आदि को स्वामी जी के निकट भेजकर स्वामी जी द्वारा मान्य प्रमाणिक ग्रन्थों की सूची लाने के लिए भेजा था। बाद में काषी नरेष ने अनुरोध किया और पुलिस कोतवाल पं. रघुनाथ प्रसाद ने मध्यस्थता की तो स्वामी जी ने अपने द्वारा मान्य प्रामाणिक ग्रन्थों की सूची स्वहस्ताक्षर सहित उन्हें दे दी। उनके द्वारा उस समय जो २१ षास्त्र प्रमाण कोटि में स्वीकार किये गये वे थे चार वेद संहिताएं, चार उपवेद, वेदों के ६ अंग, ६ उपांग तथा प्रक्षिप्त ष्लोकों को छोडकर मनुस्मृति।षास्त्रार्थ के दिन स्वामी दयानन्द जी के एक भक्त पं. बलदेव प्रसाद षुक्ल ने स्वामी जी से कहा कि महाराज, यह काषी नगरी गुणों का घर है। यदि यह षास्त्रार्थ फर्रूखाबाद में होता तो वहां आफ दस बीस भक्त और अनुयायी सामने आते परन्तु यहां काषी में तो आपको षत्रुओं के षिविर में जाकर रण कौषल दिखाना होगा। दृण व अपूर्व ईष्वर विष्वासी स्वामी दयानन्द का पं. बलदेव जी को उत्तर था--बलदेव! डर क्या है? एक ईष्वर है, एक मैं हूं, एक धर्म है, और कौन है? सत्य का सूर्य प्रबल अज्ञान और अविद्या के अंधकार पर अकेला ही विजयी होता है। अपने अटल ईष्वरविष्वास के बल पर ही दयानन्द जी ने जड उपासना के प्रतीक दृण दुर्ग काषी को अकेले ही भेदने का निष्चय किया था। षास्त्रार्थ के दिन स्वामी जी ने क्षौर कर्म कराया था, उसके बाद स्नान किया, षरीर पर मृत्तिका धारण की, इसके बाद पद्मासन लगाकर देर तक परमेष्वर का ध्यान किया। इसके बाद उन्होंने भोजन उन्होंने भोजन किया। भोजन के बाद वह षास्त्रार्थ स्थल आनन्दबाग में षास्त्रार्थ आरम्भ होने के समय ४ बजे से पूर्व पहुंच गये थे। यह लेख पर्याप्त विस्तृत हो गया है। हम इस लेख में स्वामी दयानन्द जी के विपक्षी विद्वानों से हुए प्रष्नोत्तर भी देना चाहते थे परन्तु विस्तार भय से नहीं दे पा रहे हैं। इतना ही महत्वपूर्ण है कि काषी के पण्डितों ने वेदों से मूर्तिपूजा का कोई प्रमाण न देकर स्वामी जी विशयान्तर करने का प्रयत्न किया। स्वामी जी के सभी प्रष्नों, धर्म व अधर्म मनु स्मृति के अनुरूप लक्षण वा उत्तर भी वह न बता पाये। षास्त्रार्थ चल ही रहा था कि पं. विषुद्धानन्द षास्त्री जी ने अपनी विजय घोशित कर दी और षास्त्रार्थ स्थल से अपने अनुयायियों की भीड के साथ ढोल बाजे बजाते हुए चले गये। पराजय में भी उत्सव मनाना हमारे पौराणिक विद्वानों को आता है। आज काषी षास्त्रार्थ की १४८ वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में हमने यह विचार प्रस्तुत किये हैं। हम आषा करते हैं पाठक इसे पसन्द करेंगे। ओ३म् षम्। -मनमोहन कुमार आर्य

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