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गैर-आदिवासी को आदिवासी बनाने की कुचेष्टा क्यों?

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22 Oct 17
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गैर-आदिवासी को आदिवासी बनाने की कुचेष्टा क्यों? इन दिनों समाचार पत्रों एवं टी​ ​वी पर प्रसारित समाचारों से यह जानकर अत्यंत दुख हुआ कि गुजरात में लंबे समय से गैर आदिवासियों को आदिवासी सूची में शामिल करने की कुचेष्टाएं चल रही हैं। राजनीति लाभ के लिये इस तरह आदिवासी जनजाति के अधिकारों एवं उनके लिये बनी लाभकारी योजनाओं को किसी गैर आदिवासी जाति के लोगों को असंवैधानिक एवं गलत तरीकों से हस्तांतरित करना न केवल आपराधिक कृत है बल्कि अलोकतांत्रिक भी है। इस तरह की कुचेष्टाओं के कारण आदिवासी जन-जीवन में भारी आक्रोश है और इसका आगामी गुजरात विधानसभा चुनाव पर व्यापक प्रभाव पड़ने वाला है। सत्ता पर काबिज भाजपा को इसका भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है।
गुजरात में श्री नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद से ही भाजपा की स्थिति निराशाजनक बनी हुई है। जिस प्रांत से प्रधानमंत्री एवं भाजपा अध्यक्ष आते हो, उस प्रांत पर सभी राजनीतिक दलों की निगाहे लगी हुई है और वहां की स्थिति डांवाडोल होना एक गंभीर चुनौती है। आदिवासी जन-जाति के साथ हो रहा सत्ता का उपेक्षापूर्ण व्यवहार ही नहीं, दलितों, पाटीदारों, कपड़ा व्यवसायियों की नाराजगी ऐसे मुद्दे हंै जो भाजपा की 22 वर्षों से चली आ रही प्रतिष्ठा एवं सत्ता को धूमिल कर सकते हैं।
आदिवासी जन-जाति के अधिकारों के हनन की घटना तो राजनीति तूल पकड़ ही रही है, इधर गुजरात में दलित उत्पीड़न की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं। गाय को लेकर ऊना में दलितों के साथ हुई मारपीट के बाद आणंद जिले में एक दलित युवक को सिर्फ इसलिए मार डाला गया क्योंकि वह गरबा देख रहा था। पिछले हफ्ते ही गांधीनगर के एक गांव में दो दलित युवकों पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि उन्होंने मूंछें रखी हुई थीं, इन घटनाओं से दलित गुस्से में हैं। गुजरात में पाटीदार आरक्षण के मुद्दे पर नाराज हैं। 2 साल पहले हार्दिक पटेल की अगुवाई में शुरू हुए आंदोलन की आग ने बीजेपी की सत्ता को झुलसा दिया था, जिसके चलते आनंदी बेन पटेल को अपनी कुर्सी तक गंवानी पड़ गई थी। गुजरात की राजनीति में वहां के आदिवासी समुदाय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है, वह समुदाय भी लगातार हो रही उपेक्षा से नाराज है। इन सब स्थितियों एवं मुद्दों को कांग्रेस भुनाना चाहती है और ये ही मुद्दे बीजेपी के लिये भी भारी पड़ रहे हैं।
भाजपा के ही अनेक आदिवासी नेता नाराज है, यह नाराजगी गैरवाजिब नहीं है। सन् 1956 से लेकर 2017 तक के समय में सौराष्ट्र के गिर, वरडा एवं आलेच के जंगलों में रहने वाले भरवाड, चारण, रबारी एवं सिद्धि मुस्लिमों को इनके संगठनों के दवाब में आकर गलत तरीकों से आदिवासी बनाकर उन्हें आदिवासी जाति के प्रमाण-पत्र दिये गये हैं और उन्हें आदिवासी सूची में शामिल कर दिया गया है। यह पूरी प्रक्रिया बिल्कुल गलत, असंवैधानिक एवं गैर आदिवासी जातियों को लाभ पहुंचाने की कुचेष्टा है, जिससे मूल आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है, उन्हें नौकरियों एवं अन्य सुविधाओं से वंचित होना पर रहा है। यह मूल आदिवासी समुदाय के साथ अन्याय है और उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित करना है। आदिवासी जनजीवन के साथ हो रहे अनुचित एवं अन्यायपूर्ण अधिकारों के हनन की घटनाओं को सरकार ने नहीं रोका तो इसके लिये भाजपा को भारी नुकसान हो सकता है। संस्कृति, परंपरा और धर्म के नाम पर पलने वाली राजनीति इन रुग्ण प्रवृत्तियों को क्यों ताकत दे रही है? आदिवासी-दलितों के उत्पीड़न के पीछे उन्हें उनकी औकात याद दिलाने का भाव काम कर रहा है, क्योंकि ऐसा करने वालों को लगता है कि सत्ता का हाथ उनके साथ है। अफसोस और चिंता की बात यह है कि उन्हें गलत साबित करने की कोई तत्परता सत्तारूढ़ दायरों में नहीं दिख रही, जो हम जैसे लोगों के लिये गहरी चिन्ता का विषय है।
मैं स्वयं आदिवासी क्षेत्र में जन्मा एवं जैन परम्परा में दीक्षित हूं। मेरे जीवन का ध्येय आदिवासी जीवन का उत्थान है। मेरे लिए यह बड़ा दुखद है कि पिछले 60 वर्षों से मूल आदिवासी जाति के अधिकारों को जबरन हथियाने और उनके नाम पर दूसरी जातियों को लाभ पहुंचाने की अलोकतांत्रिक प्रक्रियाएं चल रही हैं जिन्हें तत्काल रोका जाना आवश्यक है अन्यथा इन स्थितियों के कारण आदिवासी जनजीवन में पनप रहा आक्रोश एवं विरोध विस्फोटक स्थिति में पहुंच सकता है। मूल आदिवासियों की एक समृद्ध संस्कृति एवं जीवनशैली है, उनका समग्र विकास करने के लिए सरकार ने जो कल्याणकारी योजना एवं व्यवस्थाएं बनायी उनका लाभ अनुचित लोगों एवं जातियों को मिले, यह विडम्बनापूर्ण है। झूठे एवं जालसाजी तरीके से इन आदिवासी जंगलों से बाहर रहने वाले लोगों एवं जातियों को भी प्रमाण पत्र देकर उन्हें आदिवासी सूची में शामिल किया जा रहा है और आदिवासियों को मिलने वाले लाभों से उन्हें लाभान्वित किया जा रहा है, यह एक तरह का षडयंत्र है जिस पर अविलंब अंकुश लगना जरूरी है।
झूठे और गलत प्रमाण पत्रों की वजह से गैर आदिवासी लोग एवं जातियां आदिवासी सूची में शामिल हो रही है और इसके आधार पर उन्हें सरकारी नौकरियां भी प्रथम श्रेणी से निचले श्रेणी तक प्राप्त हो रही है। न केवल भारत सरकार बल्कि गुजरात सरकार की भर्ती में हजारों की संख्या में ये तथाकथित आदिवासी नौकरी प्राप्त कर रहे हैं, आदिवासी कोटे का दुरुपयोग कर रहे हैं। सरकार और व्यवस्था को गुमराह कर रहे हैं जिससे मूल आदिवासी नौकरी से तो वंचित हो रहे हैं अन्य सुविधाएं एवं अधिकारों का भी उन्हें लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है। इन स्थितियों से गुजरात में आदिवासी समुदाय बहुत नाराज है, दुखी है और उनमें विरोध का स्वर उभर रहा है। यदि समय रहते इन गलत एवं गैरवाजिब स्थितियों पर नियंत्रण नहीं किया गया तो बाहरी एवं अन्य जाति के लोग आदिवासी बनते रहेंगे और मूल आदिवासियों की संख्या तो कम होगी ही साथ-ही-साथ उनके अधिकार भी समाप्त हो जायेंगे। एक सोची समझी रणनीति एवं षडयंत्र के अंतर्गत गैर आदिवासियों को आदिवासी सूची के शामिल किया जा रहा है। जिससे मूल आदिवासियों की संख्या कम हो रही है एवं घुसपैठिया आदिवासी पनप रहे हैं। इन तथाकथित भरवाड, चारण, रवाडी, सिद्धि मुस्लिम जातियों को गलत प्रमाण पत्र के आधार पर आदिवासी सूची में शामिल किये जाने की घटनाओं को लेकर भाजपा पर आरोप लगना, एक गंभीर स्थिति को दर्शा रहा है। जिस प्रांत में नरेन्द्र मोदी आदिवासी विकास के लिये सक्रिय रहे हैं, मेरे ही नेतृत्व में संचालित सुखी परिवार अभियान के अन्तर्गत आदिवासी कल्याण की अनेक योजनाओं को स्वीकृति दी, एकलव्य माॅडल आवासीय विद्यालय खोला, आदिवासी लोगों के अस्तित्व एवं अस्मिता को नयी ऊर्जा दी, ऐसा क्या हुआ कि भीतर ही भीतर उन्हें आदिवासी जन-जाति की जड़ों को ही काटा जा रहा है।
अब जबकि चुनाव का समय सामने है यही आदिवासी समाज जीत को निर्णायक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होगी। क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। राजनीतिक पार्टियाँ अगर सचमुच में प्रदेश के आदिवासी समुदाय का विकास चाहती हैं और ‘आखिरी व्यक्ति’ तक लाभ पहुँचाने की मंशा रखती हैं तो आदिवासी हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करनी होगी।
इन दिनों गुजरात के आदिवासी समुदाय का राजनीति लाभ बटोरने की चेष्टाएं सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात के एक आदिवासी परिवार के साथ दोपहर का भोजन किया। लेकिन इन सकारात्मक घटनाओं के साथ-साथ आदिवासी समुदाय को बांटने और तोड़ने के व्यापक उपक्रम भी चल रहे हैं जिनमें अनेक राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए इस तरह के घिनौने एवं देश को तोड़ने वाले प्रयास कर रहे हैं। जबरन गैर-आदिवासी को आदिवासी बनाने के घृणित उपक्रम को नहीं रोका गया तो गुजरात का आदिवासी समाज खण्ड-खण्ड हो जाएगा। आदिवासी के उज्ज्वल एवं समृद्ध चरित्र को धुंधलाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों से सावधान होने की जरूरत है। तेजी से बढ़ता आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने का यह हिंसक दौर आगामी चुनावों के लिये गंभीर समस्या बन सकता है। एक समाज और संस्कृति को बचाने की मुहीम के साथ यदि इन चुनावों की जमीन तैयार की जाये, आदिवासी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं को प्रोत्साहन मिले, उनको आगे करके इस चुनाव की संरचना रची जाये तो ही भाजपा अपनी राजनीतिक जमीन को बचा सकती है।
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