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‘राजधर्म वा सुशासन का आधार वेद व वैदिक धर्म’

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04 Oct 17
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।संसार में दो सौ से कुछ अधिक देश हैं। सबकी अपनी अपनी आन्तरिक एवं बाह्य नीतियां व सिद्धान्त हैं। इन्हें हम गृह व विदेश नीति भी कह सकते हैं। अन्य नियम भी होते हैं जिनसे देश मे राजव्यवस्था स्थापित रहती है। यह नियम दूसरे देशों का अध्ययन कर व कुछ विशेषज्ञ व्यक्तियों की समितियों द्वारा बनाये जाते हैं जिन पर बाद में राष्ट्र अपनी स्वीकृति की मोहर लगाता है। सभी देशों के राज नि यम प्रायः समान ही हैं। सबकी अपनी अपनी परिस्थितियों के अनुसार कुछ विशेष नियम हैं जो ज्ञान व अज्ञानता की स्थिति के कारण अच्छे व बुरे हो सकते हैं। पाकिस्तान की नींव भारत से नफरत पर आधारित है। उसकी भारत से संबंधित नीतियां मानवीय आधार पर निर्मित न होकर भारत विरोध पर आधारित हैं। कुछ उनकी अपनी परम्परायें हैं जिसके अनुसार वह भारत के विरुद्ध कार्य करते हैं जिसके अनेक अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष कारण भी हैं। पाकिस्तान का जन्म 70 वर्ष पूर्व हुआ और भारत भी 70 वर्ष पूर्व ही अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र हुआ। भारत संसार का सबसे प्राचीन, उन्नत प्रगतिशील देश रहा है। सृष्टि के आदि काल में मनुष्यों की उत्पत्ति इसी भूखण्ड पर हुई। तिब्बत वह स्थान है जहां मनुष्यों अर्थात् स्त्री व पुरुषों की आदि सृष्टि हुई थी। इसकी अवधि 1,96,08,53,117 वर्ष पूर्व है। तिब्बत में जब मानव सृष्टि हुई तब संसार में किसी अन्य देश का अस्तित्व नहीं थी। सृष्टि के आदि में जो मनुष्य उत्पन्न हुए वह सब आर्य कहलाये। कालान्तर में उनके दो भेद हुए जो आर्य व अनार्य कहलाये। बाद में अनार्यों में से असुर, राक्षस, पिशाच व न जाने कितने वर्ग उत्पन्न हुए और वह सब आर्य व अनार्य पूरे विश्व में समय समय पर आव्रजन करते रहे अर्थात् फैलते रहे और इस प्रकार सारा संसार बस गया और समय के अनुसार संसार के सभी मनुष्य अनेक देशों में बंट गये।

सृष्टि के आदिकाल में मनुष्यों की उत्पत्ति तिब्बत में हुई थी। उस समय चीन व तिब्बत देश की स्थापना व अस्तित्व नहीं था। अतः यह सब भूमि आर्यों की थी। उन्होंने ही सारे संसार को बसाया। इससे यह भी सिद्ध होता है चीनियों व तिब्बितयों के पूर्वज भी आर्य थे। भाषा विज्ञान से भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। आदि काल में मनुष्य व अन्य सभी पदार्थो की उत्पत्ति ईश्वर ने की। आज भी समस्त अपौरूषेय कार्य परमात्मा ही करता है। प्रकृति जड़ होने से सोच विचार नहीं कर सकती। उसे किसी प्रकार का किंचित भी ज्ञान नहीं होता। मनुष्य को कांटा चुभता है तो पीड़ा होती है परन्तु पेड़ को काटो या पत्थर पर हथौड़े चलायें, उन्हें पीड़ा नहीं होती क्योंकि वह जड़ पदार्थ हैं। अतः सृष्टिकर्ता एक ईश्वर है जो सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान है, उसी से सृष्टि की उत्पत्ति होनी सिद्ध होती है। विज्ञान आज इस विषय पर एक मत नहीं है परन्तु वह दिन शीघ्र आयेगा जब विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार कर लेगा कि यह सृष्टि एक चेतन व विचारशील सर्वशक्तिमान सत्ता की देन है।

सभी महत्वपूर्ण व उपयोगी रचनायें बुद्धि व ज्ञान से ही होती है। अतः परमात्मा ज्ञानयुक्त सत्ता सिद्ध होती है। मनुस्मृति में उसे ‘सर्वज्ञानमय हि सः’ कहा गया है। मनुष्य अज्ञानी पैदा होता है। उसे ज्ञान की प्राप्ति नैमित्तिक कारणों माता, पिता, अध्यापक आदि से होती है। वह ऊहापोह व चिन्तन करके उस नैमित्तिक ज्ञान का विस्तार करता है। सृष्टि के आरम्भ में माता-पिता-आचार्य नहीं होते। अतः ज्ञान ज्ञानवान सत्ता परमात्मा से ही मिलता है। ईश्वर का यह कर्तव्य भी है कि वह उसके द्वारा उत्पन्न किये गये मनुष्यादि प्राणियों के सांसारिक व ईश्वर के प्रति व्यवहार हेतु आवश्यक ज्ञान दे। उसके द्वारा दिया गया वही ज्ञान ‘‘चार वेद” ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं जिन्हें आर्य व उनके पूर्वजों ने आज तक यथावत सुरक्षित रखा है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को परमात्मा से वेद ज्ञान मिलने से उनका जीवन निर्वाह सरल हो गया था। चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ब्रह्मा जी ने वेदों का ज्ञान प्राप्त कर इन पांच ऋषियों ने शेष नर-नारियों को उपदेश व शिक्षण द्वारा ज्ञान दिया जिससे आदि सृष्टि के सभी लोग ज्ञानी हो गये। जिस प्रकार योग्य माता पिता के सन्तान प्रायः योग्य होते हैं उसी प्रकार इन पांच ऋषियों से सृष्टि के आरम्भ के सभी लोग योग्य व ज्ञानी हो गये थे।

इस लेख में हम राज व सुशासन व्यवस्था का मूल व आधार वेदों को मान रहे हैं जिसके हमारे पास अनेकों प्रमाण हैं। यहां हम नमूने के रूप में ऋग्वेद का का एक मन्त्र 3/38/6 दे रहे हैं जो कि निम्न हैः

त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि।।

इस मन्त्र का वेदों के शीर्ष विद्वान ऋषि दयानन्द सरस्वती का किया हुआ अर्थ इस प्रकार है ‘ईश्वर (वेद के इस मन्त्र द्वारा मनुष्यों को यह) उपदेश करता है कि (राजाना) राजा और प्रजा के पुरुष मिल के (विदथे) सुख प्राप्ति और विज्ञान वृद्धिकारक राजा प्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार में (त्रीणि सदांसि) तीन सभा अर्थात् विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्यसभा, राजार्य्यसभा नियम करके (पुरूणि) बहुत प्रकार के (विश्वानि) समग्र प्रजासम्बन्धी मनुष्यादि प्राणियों को (परिभूषथः) सब ओर से विद्या, स्वातन्त्र्य, धर्म, सुशिक्षा और धन आदि से अलंकृत करें।

वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए। उनसे पूर्व अन्य कोई ग्रन्थ विद्यमान नहीं था। वह संसार का प्रथम ज्ञान व उस ज्ञान की प्रथम पुस्तकें हैं। इस वेद मन्त्र में परमात्मा मनुष्यों को उपदेश करते हैं कि प्रजा अपने में सबसे योग्य व्यक्ति को राजा बनायें। फिर राजा व प्रजा मिल कर सबकी सुख व समृद्धि के लिए और विज्ञान की वृद्धि के लिए परस्पर सम्बन्ध रूप सदव्यवहार करते हुए तीन सभाओं का निर्माण करें। इन तीन सभाओं का नाम विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्यसभा, राजार्य्यसभा रखें। विद्यार्य्यसभा समूचे देश में विद्या का, धर्मार्य्यसभा धर्म का और राजार्य्यसभा शासन व प्रशासन की सुव्यवस्था करें। राजार्य्यसभा में समस्त राज वर्ग, सेना व पुलिस आदि सम्मिलित हैं। यह सब गुण, कर्म व स्वभाव से क्षत्रिय नाम से भी सम्बोधित किये जाते हैं। यह सभायें बहुत प्रकार के समग्र प्रजा सम्बन्धी मनुष्यादि प्राणियों को सब ओर से विद्या, स्वतन्त्रता, सद्धर्म, सुशिक्षा और धन आदि द्रव्यों से अलंकृत व सम्पन्न करें।

ऋषि दयान्द के उपर्युक्त वेदमंत्र के वेदार्थ में राजधर्म व राज व्यवस्था का एक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि प्रजा राजा का योग्यता के अनुसार निर्वाचन करें और फिर वह समग्र प्रजा के सुख व उन्नति के लिए अपने देश व राज्य में विद्या, स्वतन्त्रता, धर्म, सुशिक्षा और धन आदि की सबको प्राप्ति करायें। यह उल्लेखनीय है कि यहां धर्म का तात्पर्य वेदों की शिक्षाओं व वेदों में बताये गये मनुष्यों के कर्तव्यों से है। हिन्दू, पारसी, ईसाई, इस्लाम, जैन व बौद्ध मतों से यहां धर्म का कोई प्रयोजन नहीं है। यह ईश्वरीय व्यवस्था ही मनुष्यों द्वारा पालनीय व आचरणीय श्रेष्ठ व्यवस्था है। यह सभी आवश्यक पदार्थ व लक्ष्य वैदिक धर्म के पालन व वेदानुरूप राजव्यवस्था के क्रियान्वयन से ही प्राप्त हो सकते हैं। आज यह व्यवस्था विश्व में कहीं नहीं है इसलिये यह पदार्थ वा लक्ष्य सभी मनुष्यों को प्राप्त नहीं हो रहे हैं। मनुष्यों के जीवनों की दुग्धादि से रक्षा में तत्पर यजमान पशु भी आज सुरक्षित व सबको उपलब्ध नहीं है। कुछ मत तो अपनी जनसंख्या बढ़ाकर विश्व पर राज करने का दुःस्वप्न ही देख रहे हैं। उन्हें मनुष्यों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अर्थात् सांसारिक एवं पारलौकिक उन्नति से कोई लेना देना ही नहीं है।

उपर्युक्त वेदमंत्र राजधर्म व राजनीति का सूत्र वाक्य है। वेदों व वेदानुकूल ग्रन्थों मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, महाभारतान्तर्गत विदुरनीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र आदि अनेक ग्रन्थ हैं जिसमें राजधर्म के सिद्धान्त व नियम प्राप्त होते हैं। आर्य विद्वानों ने इस विषय पर अनेक ग्रन्थों व टीकाओं का प्रणयन किया है। महर्षि दयानन्द के समस्त ग्रन्थों के आधार पर डा. साहब सिंह वर्मा द्वारा तैयार किये गये शोध प्रबन्ध ‘ऋषि दयानन्द का राजनीतिक दर्शन’ भी इस वैदिक राजधर्म व राजनीति का एक मुख्य स्वीकृत ग्रन्थ है। राजनीति विषयक वैदिक सभी ग्रन्थों का आधार वेद ही हैं। ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थ के अतिरिक्त अन्य सभी ग्रन्थ ईसाई आदि मतों की स्थापना से हजारों वर्षों पूर्व लिखे गये व विश्व में प्रचलित रहे। रामायण काल का रामराज्य तो विश्व में प्रसिद्ध है। महाभारत काल तक वेद व वेद सम्मत ऋषि आज्ञाओं व नियमों के आधार पर ही देश का शासन चलता था। विश्व के अन्य देशों के लोग यहां आकर शिक्षा लेते व उसका क्रियान्वयन अपने देशों में करते थे। समय आगे बढ़ा और यूरोप के देश विचार व चिन्तन करते हुए आगे बढ़े और उन्होंने अनेक सुधार किये। यह सब कुछ होने पर भी लोकतन्त्रीय व्यवस्था में अमीरी-गरीबी व अन्याय व शोषण को दूर नहीं किया जा सका। साम्यवादी विचारधारा वाले देशों में भी भेदभाव, अन्याय व शोषण है। वहां आज भी बोलने व लिखने की पूर्ण स्वतन्त्रता भी नहीं है। भारत में आवश्यकता से अधिक स्वतन्त्रता है। लोग देश के विरोध में भी अनाप शनाप बोलते हैं। उनकी जुबान पर ताला लगाने का कोई कानून नहीं है और वह सब खुले घूमते हैं और देशभक्तों को चिढ़ाते हैं।

वर्तमान व्यवस्था में सभी देशों में सबको योग्यतानुसार रोजगार भी नहीं मिलता। न सबके लिए शिक्षा का प्रबन्ध किसी देश में होता है न शत प्रतिशत सुरक्षा ही किसी देश में मिल पा रही है। पूरे विश्व में भूख पर भी नियंत्रण नहीं पाया जा सका। देश में एक ओर सेठों की तिजोरियां नोटों से भरी है ंतो दूसरी ओर गरीबों के बच्चे घांस की रोटी खाने को विवश हैं। कुछ भूखें ही मर जाते हैं। सरकारें कुछ नहीं कर पातीं। अतः हमें वेदों की ओर मुड़ना होगा और उससे अनेक मौलिक व राजधर्म की उत्तम शिक्षाओं व सिद्धान्तों को लेकर वर्तमान राजनीति में उनका समावेश करना होगा। ऐसा होने पर ही विश्व के समस्त देशों में सुशासन व सुराज्य स्थापित हो सकता है। यह भी बता दें कि वेद सुराज्य के साथ स्वराज्य का भी पोषक है। इस विषयक एक लघु ग्रन्थ भी आर्य विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने लिखा है। अन्य विद्वानों ने इस विषय पर ग्रन्थ लिखे हैं। विश्व की सभी बड़ी शक्तियों को लोगों के स्वराज्य के जन्म सिद्ध अधिकार का भी ध्यान रखना चाहिये और बलात् किसी देश में अपना शासन थोपना नहीं चाहिये। सारांश में हमें यही निवेदन करना है कि सुशासन व सुराज्य का आधार वेदों के सिद्धान्तों के अनुसार राजव्यवस्था का पोषण व संचालन है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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