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प्रेरणा से देष में धार्मिक एवं सामाजिक क्रान्ति की‘ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

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15 Sep 17
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आज ऋशि दयानन्द के विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की पुण्य तिथि है। १४ सितम्बर, सन् १८६८ (सोमवार) को मथुरा में उनका देहान्त हुआ था। उस दिन हिन्दी तिथि आष्विन मास के कृश्ण पक्ष की त्रयोदषी थी। विक्रमी संवत् १९२५ था। आज का दिन एक अवसर है कि ऋशि दयानन्द के सभी अनुयायी स्वामी विरजानन्द जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व सहित उनके द्वारा स्वामी दयानन्द के जवीन के निर्माण में योगदान व उससे देष को हुए दूरगामी लाभों को स्मरण कर। आज वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित है तो इसका सर्वाधिक श्रेय स्वामी विरजानन्द जी की स्वामी दयानन्द को षिक्षा और उन्हें धर्म व संस्कृति की रक्षा करने की प्रेरणा को ही कह सकते हैं। स्वामी दयानन्द जी स्वामी विरजानन्द जी के योग्यतम षिश्य थे। इन गुरु-षिश्यों को हम इतिहास में अपूर्व योग्यतम गुरु व षिश्य कह सकते हैं। सृश्टि के आरम्भ में ईष्वर ने जिस धर्म व संस्कृति को आदि चार ऋशियों को अपना वेद ज्ञान प्रदान कर प्रवृत्त किया था वह स्वामी दयानन्द जी (१८२५-१८८३) के समय में मरणासन्न हो रही थी। स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द जी से प्राप्त अमृतमय आर्श षिक्षा व विद्या का देषवासियों को पान करा कर वैदिक धर्म व संस्कृति को पुनर्जीवित और पुनरुद्धार किया। यदि स्वामी दयानन्द और स्वामी विरजानन्द अपने अपने समय में न हुए होते तो हम भारत व विष्व की होने वाली दुर्दषा का अनुमान भी नहीं कर सकते। आज यदि संसार को ईष्वर, जीव व प्रकृति का वेद, उपनिशद् और दर्षन वर्णित यथार्थ स्वरूप विदित है तो इसमें इन दो महापुरुशों का अपूर्व योगदान है। स्वामी दयानन्द जी से हमें जो सन्ध्या व पंचमहायज्ञ पद्धति मिली है, सत्यार्थप्रकाष, ऋग्वेदादिभाश्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ मिले हैं, उनका श्रेय भी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की स्वामी दयानन्द को षिक्षा व प्रेरणा को ही मान सकते हैं।

देष से स्वामी दयानन्द जी ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिश, जन्मना जातिवाद पर प्रहार, स्त्री षूद्रों सहित सभी मनुश्य समुदायों को वेदाधिकार जैसे सभी कार्यों का श्रेय भी एक सीमा तक स्वामी विरजानन्द सरस्वती को है। आज देष व विष्व में हिन्दी का प्रचार हुआ है, इसके पीछे प्रत्यक्ष तो स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज ही हैं एवं ब्रह्मसमाजी नेता श्री केषवचन्द्र सेन की प्रेरणा है वहीं स्वामी दयानन्द को सामाजिक जीवन जीने की प्रेरणा का मुख्य कार्य तो स्वामी विरजानन्द जी ने ही किया था। इस प्रकार से स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन में जो भी कार्य किये, आर्यसमाज की स्थापना, गुरुकुलीय पद्धति की प्रेरणा व पुनरूद्धार, अनाथों, विधवाओं की रक्षा व पुनर्वास, पुर्न-विवाह, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार युवावस्था में कन्या व युवक का विवाह, इन सब का श्रेय किसी न किसी रूप में स्वामी विरजानन्द जी की षिक्षा व स्वामी दयानन्द जी को की गई प्रेरणा व मार्गदर्षन को ही प्रतीत होता है।

हम आज स्वामी विरजानन्द जी के १४९ वीं पुण्य तिथि पर उनको श्रद्धांजलि देते हैं। स्वामी विरजानन्द जी और स्वामी दयानन्द जी वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा करने वाले महाभारत काल के बाद सबसे बडे महापुरुश हैं। उनसे पूर्व स्वामी षंकराचार्य जी का आविर्भाव हुआ परन्तु उन्होंने वेदों एवं उनके त्रैतवाद, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था एवं वेदभाश्य आदि का कार्य नहीं किया। उन्होंने गीता, वेदान्त दर्षन एवं उपनिशदों पर भाश्य अवष्य लिखे परन्तु इनसे सामाजिक व्यवस्था में गुणात्मक सुधार हुआ हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। इसके बाद तो मुसलमानों व अंग्रेजों ने देष को गुलाम बनाया और वैदिक धर्मियों पर अमानुशिक अत्याचार भी हुए। ऐसे सभी धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों का कार्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती के सुषिश्य स्वामी दयानन्द जी ने ही किया है। इनका योगदान अन्य सभी महात्माओं एवं महापुरुशाओं में सर्वाधिक है। प्रलय तक भी इनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता। इनके षिश्यों को लोभ छोडकर स्वामी दयानन्द के बतायें मार्ग का अवलम्बन करना चाहिये जिससे स्वामी दयानन्द जी द्वारा किया गया कार्य तीव्रता से आगे बढे और पूर्ण हो। ओ३म् षम्।

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