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स्वाध्याय हेतु ऋषि दयानन्दकृत एक महत्वपूर्ण लघु ग्रन्थ ‘व्यवहारभानु’

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21 Jul 17
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महर्षि दयानन्द ने एक ओर जहां सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद (आंशिक) -यजुर्वेद भाष्य, संस्कारविधि आदि वृहद ग्रन्थों की रचना की हैं वहीं आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरूणानिधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि अनेक लघु ग्रन्थों की रचना भी की है। व्यवहारभानु उनका एक प्रसिद्ध लघु ग्रन्थ है। यथा नाम तथा गुण के अनुरूप ही यह अत्युत्तम ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ विद्यार्थियों सहित युवा व वृद्धों सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी है। वर्ष में एक दो बार पढ़ लेने से इससे लाभ होता है। हमारे बहुत से पाठक ऐसे भी हो सकते हैं जिन्होंने सम्भवतः इस ग्रन्थ का नाम ही न सुना हो। अतः उनके लिए हम इस ग्रन्थ का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द जी ने इस ग्रन्थ को काशी में संवत् 1939 (सन् 1883) में रचा था। इस व्यवहारभानु पुस्तक की भूमिका में महर्षि दयानन्द मनुष्यों की उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादिशास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीतियुक्त इस ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करने का अपना मन्तव्य प्रकाशित करते हैं। भूमिका के आरम्भ में वह लिखते हैं कि मैंने परीक्षा करके निश्चय किया है कि जो धर्मयुक्त व्यवहार में ठीक-ठीक वर्त्तता है, उसको सर्वत्र सुख लाभ और जो विपरीत वर्त्तता है वह सदा दुःखी होकर अपनी हानि कर लेता है। देखिए, जब कोई सभ्य मनुष्य विद्वानों की सभा में वा किसी के पास जाकर अपनी योग्यता के अनुसार नमस्ते आदि करके बैठके दूसरे की बात ध्यान दे, सुन, उसका सिद्धान्त जान निरभिमानी होकर युक्त प्रत्युत्तर करता है, तब सज्जन लोग प्रसन्न होकर उसका सत्कार और जो अण्ड-बण्ड बकता है उसका तिरस्कार करते हैं। जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है तब उसका विश्वास और मान्य मित्र भी नहीं करते। इससे जो थोड़ी विद्या वाला भी मनुष्य श्रेष्ठ शिक्षा पाकर सुशील होता है उसका कोई भी कार्य नहीं बिगड़ता। इसलिए ऋषि दयानन्द मनुष्यों की उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादिशास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीतियुक्त इस व्यवहारभानु ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करते हैं कि जिसको देख-दिखा, पढ़-पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपने-अपने सन्तान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे वह और अन्य सब दिन सुखी रहें। अपना उद्देश्य बताते हुए महर्षि लिखते हैं कि उन्होंने इस ग्रन्थ का लेखन मनुष्यों के व्यवहार के सुधार के लिए किया है जिससे सब कोई सुख से इसे समझ कर और पुस्तक की शिक्षाओं के अनुसार अपना-अपना स्वभाव सुधार के सब उत्तम व्यवहारों को सिद्ध किया करें।

‘व्यवहारभानु’ पुस्तक के आरम्भ में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ऐसा कौन मनुष्य होगा कि जो सुखों को सिद्ध करनेवाले व्यवहारों को छोड़कर उलटा आचरण करे। क्या यथायोग्य व्यवहार किये बिना किसी को सर्वसुख हो सकता है? क्या कोई मनुष्य है जो अपनी और अपने पुत्रादि सम्बन्धियों की उन्नति न चाहता हो? इसलिए सब मनुष्यों को उचित है कि श्रेष्ठ शिक्षा और धर्मयुक्त व्यवहारों से वर्त्तकर सुखी होके दुःखों का विनाश करें। क्या कोई मनुष्य अच्छी शिक्षा से धर्मार्थ, काम और मोक्ष फलों को सिद्ध नहीं कर सकता और इसके विना पशु के समान होकर दुःखी नहीं रहता है? इसलिए सब मनुष्यों को सुशिक्षा से युक्त होना अवश्य है। जिसलिए बालक से लेके वृद्धों पर्यन्त मनुष्यों के सुधार के अर्थ व्यवहार-सम्बन्धी शिक्षा का विधान किया जाता है, इसलिए यहां वेदादि-शास्त्रों के प्रमाण भी कही-कहीं दीखेंगे, क्योंकि उनके अर्थों को समझने का ठीक-ठीक सामर्थ्य बालक आदि का नहीं रहता। जो विद्वान व्यवहारभानु ग्रन्थ में उद्धृत प्रमाणों को देखना चाहें तो वह वेदादि अथवा ऋषि दयानन्द के ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में देख सकते हैं।

शिक्षक कैसे होने चाहिये, इस प्रश्न को उपस्थित कर इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द बताते हैं कि जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी, सुखदुःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करनेवाला, जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ाकर अधर्म की ओर न प्रवृत्त कर सके, वह पण्डित अर्थात् शिक्षक कहलाता है। शिक्षक वह हो सकता है जो सदा प्रशस्त, धर्मयुक्त कर्मों का करने और निन्दित-अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न करने वाला होता है। जो न कदापि ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है। जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने, दीर्घकालपर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन के ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी, शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करने, परमेश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों को जानके उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्त्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक वर्त्तमान, किसी के पूछे विना वा दो व्यक्तियों के संवाद से विना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है। वही मनुष्य पण्डित होने की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है। स्वामी जी ने पण्डित व शिक्षक के गुणों की विस्तार से चर्चा की है। लेख की सीमा को देखते हुए उसे यहीं पर विराम देते हैं। स्वामी जी ने व्यवहारभानु पुस्तक में यह भी बताया है कि कैसे मनुष्य उपदेश करने वाले वा कैसे मनुष्य शिक्षक न होने चाहिये। इसके उत्तर में वह लिखते हैं कि जो किसी विद्या को न पढ़ और किसी विद्वान् का उपदेश न सुनकर बड़ा घमण्डी, दरिद्र होकर बड़े-बड़े कामों की इच्छा करनेहारा और विना परिश्रम के पदार्थों की प्राप्ति में उत्साही होता है, उसी मनुष्य को मूर्ख कहते हैं। मूर्ख का एक दृष्टान्त भी स्वामी जी ने दिया है जो शेखचिल्ली की कथा के नाम से विख्यात है। यह दृष्टान्त पढ़ने योग्य है। विद्या विरोधी व्यवहारों की चर्चा करते हुए वह कहते हैं कि जो विद्या और विद्वानों की सेवा न करना, अतिशीघ्रता और अपनी वा अन्य पुरुषों की प्रशंसा में प्रवृत्त होना है-ये तीन विद्या के शत्रु हैं।

इस लघु पुस्तक में व्यवहार से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातों पर प्रकाश डाला गया है। शिक्षा किसे कहते हैं, इस प्रश्न को उपस्थित कर ऋषि बताते है कि जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभगुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों को छोड़ के सदा आनन्दित हो सके, वह शिक्षा कही जाती है। विद्या और अविद्या उसे कहते हैं जिससे पदार्थ का स्वरूप यथावत् जानकर, उससे उपकार लेके अपने और दूसरों के लिए सब सुखों को सिद्ध कर सकें उसे विद्या और जिससे पदार्थों के स्वरूप को अन्यथा जानकर अपना और पराया अनुपकार करे वह अविद्या कही जाती है। ऋषि कहते हैं कि विद्या की प्राप्ति और अविद्या के नाश के लिए मनुष्यों को वर्णोच्चारण शिक्षा से ले कर वेदार्थज्ञान तक के लिए ब्रह्मचर्य आदि का सेवन करना योग्य है। ब्रह्मचारी और आचार्य का अर्थ भी ऋषि दयानन्द ने इस पुस्तक में बताया है। माता, पिता और आचार्यों को अपनी सन्तानों वा शिष्यों के प्रति क्या-क्या शिक्षा करनी चाहिये इस पर भी प्रकाश डाला गया है। यह भी बताया गया है कि विद्या किस-किस प्रकार और किस साधन से प्राप्त होती है। आचार्यों को विद्यार्थियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये, इस पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द जी कहते हैं कि आचार्य ऐसे प्रयत्न करें कि जिसप्रकार से विद्यार्थी विद्वान्, सुशील, निरभिमान, सत्यवादी, धर्मात्मा, आस्तिक, निरालस्य, उद्योगी, परोपकारी, वीर, धीर, गम्भीर, पवित्राचरण, शान्तियुक्त, दमनशील, जितेन्द्रिय, ऋजु, प्रसन्नवदन होकर माता-पिता, आचार्य, अतिथि, बन्धु, मित्र, राजा, प्रजा आदि के प्रियकारी हों। जब किसी से बातचीत करें तब जो-जो उसके मुख से अक्षर, पद, वाक्य निकलें उनको शान्त होकर सुनके प्रत्युत्तर देवें। जब कभी कोई बुरी चेष्टा, मलिनता, मैले वस्त्रधारण, बैठने-उठने में विपरीताचरण, निन्दा, ईर्ष्या, द्रोह, विवाद, लड़ाई, बखेड़ा, चुगली, किसी पर मिथ्या दोष लगाना, चोरी, जारी, अनभ्यास, आलस्य, अतिनिद्रा, अतिभोजन, अतिजागरण, व्यर्थ खेलना, इधर-उधर अट्ट-सट्ट मारना, विषय-सेवन, बुरे व्यवहार करे तब उसको यथा अपराध कठिन दण्ड देवे। इस प्रकरण में ऋषि दयानन्द यह भी लिखते हैं कि आचार्य लोग अपने विद्यार्थियों को विद्या और सुशिक्षा होने के लिए प्रेमभाव से अपने हाथों से ताड़ना करते हैं, क्योंकि सन्तान और विद्यार्थियों का जितना लाडन करना है उतना ही उनके लिए बिगाड़ और जितनी ताड़ना करनी है उतना ही उनके लिए सुख-लाभ है। परन्तु ऐसी ताड़ना न करे कि जिससे अंग-भंग वा मर्म में लगने से विद्यार्थी लोग व्यथा को प्राप्त हो जाएं। अन्य कुछ प्रश्न जिनके उत्तर पुस्तक में दिये गये हैं वह हैं धर्म और अधर्म किसे कहते हैं?, सभा में कैसे व्यवहार करें?, जड़ बुद्धि और तीव्र बुद्धि किसे कहते है?, माता-पिता, आचार्य और अतिथि अधर्म करें और कराने का उपदेश करें तो मानना चाहिए वा नहीं? ब्रह्मचर्य के क्या क्या नियम हैं?, कन्याओं के पढ़ने में वैदिक प्रमाण कहां हैं? मनुष्य विद्या को किस-किस क्रम से प्राप्त हो सकता है?, बिना पढ़े हुए मनुष्यों की क्या गति होगी? न्याय और अन्याय किसको कहते हैं?, धर्म और अधर्म किसको कहते हैं?, पोप का क्या अर्थ है?, पुरुषार्थ किसको कहते हैं और उसके कितने भेद हैं? किस-किस प्रकार से किस-किस व्यवहार में तन, मन, धन लगाना चाहिए? विवाह करके स्त्री-पुरुष आपस में कैसे-कैसे व्यवहार करें?, मनुष्यपन किसको कहते हैं?, सब मनुष्यों का विद्वान् वा धर्मात्मा होने का सम्भव है या नहीं?, राजा किसको कहते हैं तथा प्रजा किसको कहते हैं? आदि आदि।

हम आशा करते हैं कि जो भी व्यक्ति इस लघु ग्रन्थ को पढ़ेगा, वह असीम लाभ प्राप्त कर सकता है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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