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“वेद और ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों को अपनाकर ही देश अखण्डित, स्वतन्त्र और सुरक्षित रह सकता है”

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18 Jul 17
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आजकल हमारा देश इतिहास के बहुत ही खराब दौर से गुजर रहा है। कश्मीर में आतंकवाद अपनी तीव्रतम स्थिति में है जहां पाकिस्तानी और राज्य के कुछ गुमराह लोग देश की रक्षा करने वाली सेना का विरोध करते हैं और न केवल उनकी जान लेने के लिए तत्पर रहते हैं अपितु सरकारी सम्पत्ति को हानि भी पहुंचाते हैं। अनेक कारण और हैं जिनको अनुभव किया जा सकता है परन्तु जिनकी चर्चा करना हमारे स्तर से उचित प्रतीत नहीं होता। अनेक राजनीतिक दल सत्ता से दूर होने के कारण सरकार के विरोध के साथ साथ देश विरोध के कार्य भी करते हैं और वोट बैंक की राजनीति करते हुए देश के हितों व अपने कर्तव्यों की उपेक्षा भी करते हैं। बंगाल व अन्य कई राज्यों में पिछले दिनों अनेक अप्रिय घटनायें घटी हैं जो देश की अखण्डता, स्वतन्त्रता और सुरक्षा सहित आर्य हिन्दू हितों के लिए चुनौती हैं। इनकी उपेक्षा करना देश व समाज के लिए आत्मघाती होगा। अतः इन पर विचार करते हुए वेद और ऋषि दयानन्द की याद आती है। आज यदि देश में सभी आर्य हिन्दुओं द्वारा वेद व ऋषि दयानन्द जी द्वारा प्रचारित सिद्धान्तों को अपना लिया जाता तो आज देश की यह दयनीय स्थिति न होती? आज भी हमारी अनेक जो धार्मिक व सामाजिक संस्थायें हैं, वह दिन प्रतिदिन देश के अहित की इन घटनाओं की उपेक्षा ही करती दीखती हैं। ऐसा लगता है कि उनका देश से कोई सरोकार ही नहीं है। वह यह भूल जाते हैं कि देश का स्थान धर्म से पहले हैं। देश होगा तभी तो हम पूजा-पाठ व धर्म-कर्म कर सकते हैं। जब देश ही सुरक्षित नहीं होगा तो धर्म-कर्म कौन व कहां करेगा? हमें यह देख कर भी हैरानी होती है कि हमारे देशवासी वह कार्य भी करते हैं जिनसे देश के हितों को हानि पहुंच रही है। ऐसे अनेक कार्य हैं जिनमें एक चीनी वस्तुओं का प्रयोग भी हमें देश के हितों के विरुद्ध दृष्टिगोचर होता है। यदि हम इसे ही बन्द कर दे तो इससे देश को बहुत बड़ा लाभ हो सकता है और शत्रु देश चीन को भी नसीहत मिल सकती है। लेकिन यह हो नहीं रहा और न भविष्य में इसके होने की सम्भावना दिखाई देती है। ऐसा इतिहास का अनुभव बताता है।

वैदिक विचारधारा का हमने कुछ अध्ययन किया है। हमें यह विचारधारा विश्व के सभी लोगों द्वारा स्वीकार करने योग्य दीखती है। इसी के आचरण में संसार के सभी लोगों का हित व कल्याण स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस विचारधारा में सबके प्रति न्याय होता है, अन्याय व शोषण किसी का नहीं होता। इस विचारधारा व इसके सिद्धान्तों को अपनाकर विज्ञान फल फूल सकता है और सभी मनुष्य भातृत्व व मैत्रीभाव से परस्पर व्यवहार करते हुए सुख व शान्ति पूर्वक अपना पूरा जीवन व्यतीत कर सकते हैं। जहां तक कानूनों की बात है, मनुस्मृति व चाणक्य नीति आदि ग्रन्थों की सहायता से समय के अनुकूल नियम व कानून आदि बनाये जा सकते हैं व वर्तमान नियमों में संशोधन किया जा सकता है। लेकिन यह सुधार हो कैसे और कौन करे? यह प्रश्न अनुत्तरित दिखाई देता है। वेद और महर्षि दयानन्द जी की विचारधारा क्या है, इस पर भी कुछ विचार कर लेते हैं।

वेदों का प्रमुख व सत्य सिद्धान्त है कि संसार में दो प्रकार के पदार्थों की सत्ता है, एक पदार्थ चेतन हैं और दूसरे जड़। चेतन भी दो प्रकार के हैं एक सर्वव्यापक ईश्वर व दूसरा एकदेशी व ससीम जीव। ईश्वर पूरे ब्रह्माण्ड में केवल एक ही है जिसके गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार अनेकानेक वा असंख्य नाम हैं। ईश्वर मुख्यतः सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी होने सहित जीवों को उनके कर्मानुसार जन्म, मृत्यु, सुख व दुख के रूप में फल प्रदाता है। इन दो चेतन पदार्थों से भिन्न तीसरी सत्ता व पदार्थ सूक्ष्म प्रकृति है जो स्वभाव में जड़ है। प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों की साम्यवस्था को कहते हैं। ईश्वर अपने विज्ञान व सर्वशक्तिमत्ता से इस प्रकृति को घनीभूत कर ही दृश्यमान कार्य सृष्टि की रचना करता है। ईश्वर ने यह सब कार्य जीवों के सुख व कल्याण के लिए किया है, अतः जीवात्माओं का यह कर्तव्य है कि वह मनुष्य योनि में उत्पन्न होकर उस ईश्वर को जानने के साथ उसके यथार्थ स्वरूप के अनुसार उसका विचार, चिन्तन व ध्यान करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना नित्य प्रति किया करें। मनुष्यों का यह भी कर्तव्य है कि वह इस सृष्टि को स्वच्छ रखे। सृष्टि में वायु व जल का अन्य पदार्थों से अधिक महत्व है, अतः इनकी शुद्धि के लिए उसे अग्निहोत्र आदि कार्यों को भी नियमित रूप से करना चाहिये। सभी जीव वा प्राणी परमात्मा की सन्तानें हैं। इसमें गाय, सांड, बकरी, भेड़, हिरण, मछलियां, मुर्गे, मुर्गी व सुअर आदि जीवधारी परमात्मा की सन्तानें व हमारे समान ही जीव हैं। जैसा सुख-दुःख हमें होता है, वैसा उनको भी होता है। मृत्यु के बाद हमें भी कर्मानुसार यह योनियां व शरीर प्राप्त हो सकते हैं। अतः सभी के प्रति हमारा दया, करूण, प्रेम, स्नेह व मैत्री भाव होना चाहिये।

वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो उसने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों को दिया था। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। इसमें तृण से लेकर ईश्वर पर्यन्त सृष्टि के सभी पदार्थों का सत्य व यथार्थ ज्ञान है। अतः मनुष्यों को वेदों का सेवन वा अध्ययन अनिवार्य रूप से करना चाहिये जिससे वह अपने व सृष्टि के साथ न्याय कर सके। वेदाध्ययन करने के बाद मनुष्य को जो ज्ञान व विवेक की प्राप्ति होती है उससे वह सभी प्रकार के अन्धविश्वासों, पाखण्डों, कुरीतियों से मुक्त हो जाता है। ऐसे समाज में न तो जड़ मूर्ति की पूजा होती है, न मृतकों का श्राद्ध होता है, न फलित ज्योतिष जैसी अविद्या होती है जिससे देश गुलाम बना व मनुष्य भय व आतंक के वातारण में जीता है, न वेदानुयायी किसी के प्रति हिंसा करता है और न किसी प्राणी का मांस ही खाता है, समाज में सबके प्रति समानता का व्यवहार करता है, छुआछूत व अस्पर्शयता का तो प्रश्न ही नहीं होता, सबको उन्नति के समान अवसर मिलते हैं, अन्याय करने वाला तुरन्त दण्डित होता है, अन्याय, व शोषण किसी का नहीं होता तथा समर्थक व देश में गद्दार न होने से आतंकवाद भी ऐसे देश व समाज में स्थान नहीं पा सकता। सभी ऋषि-मुनियों व विद्वानों से निर्मित ‘‘धर्मार्यसभा” के निर्णयों व नियमों को मानते हैं। राजनीति भी देश हित को केन्द्रित रखकर की जाती है। वहां योग्यतम को ही राजनीतिक व प्रशासनिक पद मिलते हैं। बहुमत व अल्पमत का प्रश्न ही नहीं होता। सबका एक मत, सत्य मत, ही होता है। सभी विद्वान प्रचलित वैदिक मत की मान्यताओं की सत्यता पर विचार करते हैं और असत्य को छोड़ने तथा सत्य को ग्रहण करने में सदैव तत्पर होते हैं। वेद के समान किसी मनुष्य वा विद्वान द्वारा लिखी व रचित पुस्तक का महत्व नहीं होता है, होता है तो उसके केवल वेदानुकूल अंश का ही होता है। वेदों की शिक्षायें देश व विश्व को सुखी बनाने के लिए हैं। किसी के अधिकारों का हनन कर परतन्त्र बनाने व उसके नागरिकों को दबाने व कुचलने तथा अपने मत का येन-केन-प्रकारेण, लोभ-लालच-भय व साम-दाम-दण्ड-भेद से अपना अनुयायी बनाने व धर्मान्तरण करने की नहीं होती। सबको केवल एक सत्य मत ही मानना होता है। ऐसा महान समाज, देश व विश्व केवल वेदों की शिक्षाओं के आधार पर ही बन सकता है। इसी का प्रचार व प्रसार महर्षि दयानन्द ने विश्व के सभी लोगों के सुख व कल्याण की भावना से किया था और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों सहित वेदभाष्य भी हमें प्रदान किया है जिसका अध्ययन, मनन व आचरण देश व विश्व के सभी लोगों का कर्तव्य है। वैदिक राज्य में सभी लोगों को सत्यासत्य का विचार कर सर्वोत्कृष्ट वैदिक विचारधारा का धारण व पालन करने की स्वतन्त्रता होती है।

देश का हर नागरिक आज जान रहा है कि देश की अन्दरूनी व बाह्य स्थिति के कारण देश की एकता, अखण्डता, स्वतन्त्रता व सुरक्षा के लिए खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। ऐसे में वैदिक विचारधारा के प्रचार व प्रसार की सबसे अधिक आवश्यकता है। अन्य विचारधाराओं व मान्यताओं में देश को सुदृण बनाने की क्षमता नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में सभी को सत्यार्थप्रकाश पढ़कर अपने कर्तव्य का निर्धारण करना चाहिये। जब सभी एक मत होकर संगठित होंगे तभी देश सुरक्षित, अखण्ड व उन्नत रह सकता है। परस्पर विरोधी विचार तो मनुष्य को परस्पर दूर दूर ही करते हैं। आज इनकी सभी देशवासियों को छूट मिली हुई है। इसका अधिकांशतः दुरूपयोग होता ही दिखाई दे रहा है। ओ३म् शम्।

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