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इंसानियत का पैगाम देता एक निराला संत

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24 Jun 17
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धरती पर कुछ ऐसे व्यक्तित्व होते हैं जो असाधारण, दिव्य और विलक्षण होते हंै। हर कोई उनसे प्रभावित होता है। ऐसे व्यक्तित्व अपने जीवन में प्रायः स्वस्थ, संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं। उनमें चुनौतियों को झेलने का माद्दा होता है। वे कठिन परिस्थितियों में भी अविचलित और संतुलित रहते हैं। बीजी रहते हुए भी उनकी लाइफ ईजी होती है। वे स्वयं में ही खोये हुए नहीं रहते, बल्कि दूसरों में भी अभिरुचि लेते हैं। अपनी इन्हीं विशिष्टताओं के कारण वे अन्यों के लिए आदर्श या प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। भारतवर्ष की धार्मिक, दार्शनिक तथा आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में ऐसे महान दार्शनिकों, संतों, ऋषियों एवं विलक्षण महापुरुषों की श्रृंखला में एक नाम है गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वरजी। वे शांतिदूत, तीर्थोद्धारक, राष्ट्रसंत एवं मानव-कल्याण के पुरोधा के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने नफरत, द्वेष एवं हिंसा की स्थितियों को समाप्त करने के लिये इंसानियत का सन्देश दिया है।
आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वरजी भगवान ऋषभ और महावीर की परम्परा के सशक्त प्रतिनिधि है, जिन्होंने जैन संस्कृति एवं जैन तीर्थों के विकास के लिये अनूठे उपक्रम किये हैं। वे विश्व में सर्वत्र शांति, सद्भाव, सहयोग, सौहार्द के समर्थक हैं, राष्ट्रीय विचारधाराओं में अभिव्यक्ति के प्रखर, आत्म वल्लभ दर्शन को आचरण से चरितार्थ कर वर्तमान भौतिकवाद की विभीषिका में सर्वत्र सर्वधर्म समभाव रखकर जन-जन के कल्याणार्थ चेतना व विकास का शंखनाद करने वाले जिनशासन के अगणित कार्यों को अत्यंत शांति, सहजता व सरलता से पूर्ण करने वाले विशिष्ट संतपुरुष हैं, उन्होंने सत्यं, शिवं और सुन्दरम् की युगपत् उपासना की हंै, इसलिये उनका हर कार्य सृजनात्मकता पैदा करने वाला है। उनका हर उपक्रम प्रशंसा या किसी को प्रभावित करने के लिये न होकर स्वान्तः सुखाय एवं स्व-परकल्याण की भावना से प्रेरित होता है। इसी कारण उनके उपक्रम सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
भारत की राजधानी दिल्ली में धर्मपरायणा श्रीमती राजरानी की रत्नकुक्षि से वि.सं. 2015 द्वितीय श्रावण वदि चतुर्थी पिताश्री चिमनलालजी जैन के चमन में खिलने वाले इस पुष्प को बचपन का नाम मिला प्रवीण। बालक का दिव्य भाल व कांतियुक्त काया को देखकर सभी सहसा कह उठे कि देवलोक से कोई महान पुण्यशाली जीव अवतरित हुआ है। आपके पिताश्री में एक ओर तो राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी तो दूसरी तरफ संसार के प्रति निरासक्ति के भाल संन्यस्त जीवन जीने के लिए आकृष्ट कर रहे थे।
बालक प्रवीण का अतिलघु अवस्था में अनेक गुणों को अपना लेना, हिताहित का कुछ अंशों में भान हो जाना सचमुच ही महानता की निशानी थी। इसलिए कहा है- ‘होनहार वीरवान के होत चिकने पात।’ प्रवीण की संयम मार्ग पर अग्रसर होने की बलवती भावना देखकर माता-पिता भी विस्मित हो उठे। फलस्वरूप वि.सं. 2024 मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी के शुभ दिन मात्र 9 वर्ष की अल्पवायु में उत्तर प्रदेश के बड़ौत नामक शहर में राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वरजी के करकमलों से माता-पिता, तीनों भाई तथा बाबाजी कुल एक ही परिवार के छह सदस्यों ने एक साथ भगवती दीक्षा ग्रहण कर न केवल एक नया इतिहास रचा बल्कि अपना जीवन स्व-परकल्याण हेतु समर्पित कर दिया। गुरु समुद्र ने आपश्री को मुनिश्री नित्यानंद विजय नाम प्रदान करके सांसारिक पिता मुनिश्री अनेकांत विजयजी म.सा. का शिष्य घोषित किया। अध्यात्म की उच्चतम परम्पराओं, संस्कारों और जीवन-मूल्यों से प्रतिबद्ध इस महान विभूति एवं ऊर्जा का सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या, तितिक्षा और तेजस्विता का प्रतीक बना हैं और प्रतिभा और पुरुषार्थ का पर्याय बना हैं।
आचार्य नित्यानंद जी ने गुरुवर इन्द्र के भी निजी सचिव, प्रमुख सलाहकार के रूप में वर्षों तक कार्य करते हुए समुदाय विकास के अनेकानेक अनूठे कार्य किए। आपकी निर्णय लेने की क्षमता, विनय, विवेक-संपन्नता, शासनसेवा की तीव्र उत्कंठा से अभिभूत होकर परमार क्षत्रियोद्धारक चारित्रचूड़ामणि आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी ने आपश्री को वि.सं. 2044 में ठाणे में गणि पदवी एवं वि.सं. 2047 में विजय वल्लभ स्मारक दिल्ली में पंन्यास पदवी तथा वि.सं. 2047 में तीर्थोंधिराज श्री शत्रुंजय तीर्थ पालीताणा में आचार्य पदवी से विभूषित करते हुए पंजाब आदि उत्तरी भारत के क्षेत्रों की देखरेख व सार-संभाल का गुरुत्तर भार आपश्री को सौंपा था।
आचार्य नित्यानंद सूरीश्वरजी ने वर्ष 2013 का चातुर्मास जम्मू में किया। जम्मू कश्मीर की असामन्य स्थितियों एवं हिंसा की परिस्थितियों में इस चातुर्मास के द्वारा शांति, अहिंसा एवं साम्प्रदायिक सौहार्द का अपूर्व वातावरण निर्मित हुआ। इसी चातुर्मास के दौरान अमरनाथ यात्रा को लेकर संकट की स्थितियां खड़ी हुई एवं यात्रा को बाधित होना पड़ा। इन स्थितियों में आचार्यजी के प्रयासों से यात्रा भी प्रारंभ हुई एवं शांति का वातावरण भी निर्मित हुआ। जम्मू कश्मीर सरकार ने उनके इस उल्लेखनीय भूमिका के लिए उन्हें समारोहपूर्वक प्रांतीय सरकार का महात्मा गांधी शांति पुरस्कार प्रदत्त किया गया।
इक्कीसवीं सदी के भाल पर अपने कत्र्तृत्व की जो अमिट रेखाएं उन्होंने खींची हैं, वे इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। तीर्थोद्धारक के साथ-साथ वे धर्मक्रांति एवं समाजक्रांति के सूत्रधार भी कहे जा सकते हैं। आपने अध्यात्म के सूक्ष्म रहस्यों को तलाशा है और आंतरिक ऊर्जा को जागृत किया है।
आचार्य नित्यानंद सूरीश्वरजी के अभिनंदनीय सद्गुणों से आकृष्ट होकर दिगम्बराचार्य श्री पुष्पदन्त सागरजी स्वयं उपाश्रय पहुंचे व विविध विषयों पर विचार विनिमय किया। यहां यह उल्लेखनीय है कि श्री आत्म वल्लभ समुद्र इन्द्रदिन्न पाट परम्परा के आप ऐसे प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने भारत के पूर्वी भूभाग कोलकाता में चातुर्मास कर अभूतपूर्व जिन शासन प्रभावना का स्वर्णिम इतिहास रचा। आपने सम्मेदशिखर महातीर्थ में श्री जैन श्वे. तपागच्छ दादावाडी, भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि क्षत्रियकुंड लछवाड़ में भगवान महावीर हाॅस्पिटल का निर्माण, श्री हस्तिनापुरजी में श्री अष्टापद का भव्य निर्माण, जैतपुरा (राजस्थान) में श्री विजय वल्लभ साधना केन्द्र, चेन्नई में जैन समाज के जरूरतमंद लोगों के लिये साधर्मिक नगर का निर्माण, अंबाला (हरियाणा) में अनेक कालेज, स्कूल आदि अनेक शिक्षा, जिनशासन भावना और समाज कल्याण के कार्य कराए। प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के सम्पोषक व नवीन धारा के पुरस्कर्ता आपने दक्षिण भारत प्रवास के दो वर्षों में पूज्य गुरुदेवों की यशपताका को फहराने के साथ लोक कल्याण साधर्मिक उत्कर्ष, जीवदया, जिनशासन व परोपकार के इतने कार्य संपन्न कराए जिनका विस्तृत वर्णन करे तो एक महाग्रंथ ही बन जाए। लगभग 100 करोड़ के रचनात्मक कार्य संपन्न करवा कर आप जन-जन की आस्था के केन्द्र बन गए। विजयवाड़ा गुन्टूर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित 19 वर्षों से निर्माणाधीन दक्षिण भारत मुकुटमणिसम श्री हªींकार महातीर्थ का निर्माण आपश्री के पुण्य प्रभाव से द्रुतगति से पुनः प्रारंभ हुआ। इसके लिये आपको ‘शासन दिवाकर’ पद से सुशोभित किया गया हैं।
राष्ट्रीय समस्याओं एवं आपदाओं के समाधान में आपकी सदैव रचनात्मक भूमिका रही है। सुनामी की विभीषिका से संत्रस्त असंख्य परिवारों के कल्याणार्थ जैन समाज को प्रेरित कर विशाल धनराशि एकत्र करवाकर भिजवाई। इससे पूर्व लातूर, कच्छ के भूकम्प तथा कारगिल जैसी राष्ट्रीय आपदाओं के समय भी समाज को जागृत कर राष्ट्रसेवा का स्वर्णिम इतिहास रचा था। दिल्ली के वल्लभ स्मारक की पुण्यधरा पर वे क्षण तब अविस्मरणीय बन गए जब आपश्री को ‘गच्छाधिपति पद’ से अलंकृत किया।
विगत पचास वर्षों से भारत भूमि की अनेकानेक बार पाद विहार करते हुए परिक्रमा कर जम्मू कश्मीर से पाण्डिचेरी, कोलकाता से मुम्बई विशाल राष्ट्र के जन-जन को अहिंसा, शाकाहार व जीवों के प्रति करुणा के संस्कार देते हुए शिक्षा, सेवा, चिकित्सा के अगणित प्रकल्पों से राष्ट्र को लाभान्वित किया। अहर्निश योजनाबद्ध कार्यक्रमों की मानों कतार बनाकर जम्मू, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश आदि संपूर्ण देश में परोपकार के अनेकविध सुकार्यों से आदिवासियों, निर्धन निरीह बंधुओं, अशिक्षितों, पीड़ितों को लाभान्वित किया। आप गुजरात के आदिवासी समाज के कल्याण के लिये निरन्तर सक्रिय हैं, आपके आज्ञानुवर्ती गणि राजेन्द्र विजयजी ने सुखी परिवार अभियान के माध्यम से वहां सेवा, शिक्षा, बालिका कल्याण एवं जीवदया के अनेक कार्य संचालित किये हुए हैं।
आचार्य नित्यानंद सूरीश्वरजी की अनेक पुस्तकें प्रकाशित होकर जन-जन को प्रेरित कर रही है। उनके जीवन को, व्यक्तित्व, कर्तृत्व और नेतृत्व को किसी भी कोण से, किसी भी क्षण देखें वह एक प्रकाशगृह (लाइट हाउस) जैसा प्रतीत होता है। उससे निकलने वाली प्रखर रोशनी सघन तिमिर को चीर कर दूर-दूर तक पहुंच रही है और मानवता को उपकृत कर रही है। उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के सतरंगे चित्र को और अधिक चमकाने वाला गुण है उनकी स्फुरणाशील प्रतिभा।
सदैव शांति, अहिंसा, सद्भाव प्रेम, करुणा तथा प्राणिमात्र की मुस्कुराहटपूर्ण विकास के लिए जीने वाले ऐसे कर्मयोगी राष्ट्रसंत विरले ही मिलते हैं। इस वर्ष आपका दीक्षा का 50वां वर्ष हैं, जिसे प्रयोजनात्मक एवं आयोजनात्मक रूप से दिल्ली में भव्य रूप में मनाया जा रहा है। आपका व्यक्तित्व और कर्तृत्व आध्यात्मिक शक्तियों का पुंज है। अपने पुरुषार्थ, प्रतिभा एवं कौशल के आधार पर अपने सफरनामे में आज वे अध्यात्म जगत की विशिष्ट शक्ति के रूप में वंदित, अभिनंदित हो रहे हैं।
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