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सौंदर्य उजागर करते कृश्न चंदर

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28 Mar 15
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जम्मू की एक बहुत खूबसूरत घाटी में एक छोटा सा बँगला। खूबानी, सेव, चेरी और चीड़ के लहलहाते पेड़ों और रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों के बीच एक छोटे-छोटे पत्थर बिछाकर बनी हुई पगडण्डी। पिता का हाथ थामे एक बच्चा एक-एक पत्थर पर पैर रखता हुआ बँगले की ओर चला जा रहा है। दोनों की पीठ दिखाई दे रही है। बच्चे के नन्हे-नन्हे कदम उठते हैं और पत्थर दर पत्थर पार करता हुआ बच्चा आगे बढ़ता जाता है। अपने घर की ओर- यह दृश्य है उस फिल्म का जो दो-तीन बरस पहले महेन्द्रनाथ जी ने कृश्न चंदर के जीवन पर बनाई थी। यह बंगला, वह पुराना बंगला है जहां कृश्न चन्दर का बचपन बीता था। और अपने पिता का हाथ थामे यह बच्चा कृश्न के बचपन का प्रतीक है, वह बचपन जो जम्मू कश्मीर की फल-फूल लदी घाटियों, पहाड़ों, चश्मों, झरनों, हरी-भरी ढलानों और चीड़ और बाँस के घने जंगलों में चरवाहों और बंजारिनों के पहाड़ी गीतों के बीच बीता था। उन वादियों में भटकते उस बच्चे के नन्हे से मन ने सपने देखे थे, इंसान और प्रकृति के सौंदर्य से पहली बार रिश्ते जोड़े थे और वह सपने, वह सौंदर्य, वह रिश्तों की भावभीनी महक कृश्न चंदर की कलम में जिंदगी भर बसी रही। उनका मन सदैव रहा और जब उसने दुनिया की कड़वी बेडौल कुरूप असलियत देखी, उस माहौल को फिरकापरस्ती और सरमायादारी और सत्तापरस्ती इंसानी रिश्तों में ज़हर घोल देती है और जिंदगी की वादी फूलों और नगमों की वादी न रहकर आपसी नफरत, हिंसा, खूँरेजी और शोषण का नरक बन जाती है, तब उनकी कलम तड़प उठती थी और वह उस अमानुषिकता पर भरपूर चोट करते थे।

अपनी जिन रचनाओं से वह इस दौर के सबसे लोकप्रिय भारतीय कथाकार बने, उन रचनाओं में इंसान के बाहरी और अन्दरूनी सौंदर्य के प्रति रूमानी रूझान, प्रकृति के खुले सौंदर्य के प्रति यही सपनीली सुकुमारिता और विसंगति तथा शोषण से उत्पन्न कुरूपता के प्रति यही तड़प भरा विरोध पर बड़ी प्यारी और प्रभावशील शैली में प्रकट होता था, जिसे आप हिंदी कहिए या उर्दू कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वास्तव में दोनों जुबानें एक ही हैं और उनकी एकता के, प्रेमचन्द्र के बाद, सबसे बड़े प्रमाण कृश्न चन्दर थे। यही कारण है कि कृश्न चन्दर हिंदी पाठकों के बहुत-बहुत प्यारे कथाकार रहे और उनके इस तरह चले जाने ने हिंदी की दुनिया को भी सूना और उदास कर दिया। भारत और पाकिस्तान के करोड़ों पाठकों के प्यारे लेखक तो वह थे ही, दुनिया की चालीस से ज्यादा जुबानों में उनकी कहानियों का तर्जुमा हुआ था और भारत के बाहर शायद भारत के सबसे ज्यादा जाने-माने लेखकों में उनका स्थान सबसे ऊंचा था।

और सुंदरता के नाजुक सपनों और इंकलाब के बुलंद नारों और देश में असीम लोकप्रियता और विदेशों में फैली अन्तरराष्ट्रीय शोहरत वाले इस अनोखे व्यक्तित्व के अगर आप निकट सम्पर्क में आए होते तो आप देखकर हैरत में पड़ जाते कि सफलता और शोहरत के शिखर पर बैठा यह व्यक्ति ऊपर से कितना सादा, कितना सीधा, कितना प्यार भरा, कितना भोला, बिलकुल सरल विश्वासी बच्चों जैसे मनवाला इंसान था। यह नहीं कि घृणा, गुस्सा, दुश्मनी उस मन में उभरती नहीं थी, लेकिन इन चीजों को वह देर तक मन में धर नहीं पाते थे। बदली की छाँव की तरह यह भावनाएँ उनके मन में उपजती थी। लेकिन बहुत जल्दी ये कच्चे रंग की तरह उतर जाती थीं। मुकम्मल थी उनके मन की मोहब्बत, और नरमाई और दोस्ती और सपनों में डूबने की आदत। और मैं क्या कहूं कि उन्हें अपने कैशोर्य में पढ़कर उनकी कहानियों की भाषा-शैली के सम्मोहन में डूबकर मैंने उनकी जो तस्वीर बनाई थी वह तो बड़ी अजीब थी ही, पर जब बम्बई आकर उन्हें जाना, उनके निकट सम्पर्क में आया तो उनके व्यक्तित्व की परत दर परत खुलती गई, इंद्रधनुष के रंगों जैसी। मुझे और पुष्पा को कृश्न भाई और सलमा भाभी से जो प्यार और विश्वास और अपनापन मिला उसके बारे में तो कभी लिखूंगा, तब जब मन थोड़ा स्थिर हो जाए, उनके अकस्मात् चले जाने के आघात से उबर लें।

अभी तो कितनी यादें घिर आती हैं, आंखों में आंसुओं की तरह और आंसुओं के उस झिलमिलाते हुए परते के उस पार दिखता है उनका साँवला, भरा-भरा भोला-सा चेहरा जिस पर बारीक प्यार बरसाती हुई मुस्कान हमेशा हम दोनों को देखते ही खिल जाती थी। और कितनी ही स्मृतियाँ- मैं बम्बई आया हूं, अकेला उदास, टूटा हुआ और इस बम्बई की विशालता और भीड़-भाड़ से घबराकर इलाहाबाद वापस जाने को तैयार, कि कृश्च चंदर से पहली बार भेंट होती है। और वह जन्म जन्म से बिछड़े बड़े भाई की तरह कंधों पर हाथ रखकर दिलासा देते हैं कि घबराओ मत अकेले नहीं हो, बम्बई में मैं जो हूं। बहुत बाद में पता चलता है कि जिन दिनों वह मुझ पर अपनी ममता बरसा कर मुझे बम्बई में जमा रहे थे उस समय खुद वह अपने दाम्पत्य परिवार से उखड़े हुए थे, टूटे हुए, निराश और बेहद अकेले। मैं बम्बई में जमता हूं और वे लापता। पता चलता है कि अब दिल्ली में हैं, वह विदेश में, अब लौटकर नैनीताल में। दो बरस बाद गेलार्ड में मैं और मोहन राकेश बैठे कॉफी पी रहे हैं। उधर से आकर एक मेज पर बैठते हैं कृश्न भाई और उनके साथ गहरे सतरंगे कुर्ते में मनभावन और नैन-नक्श वाली भाभी, सलमा भी। कृश्न भाई के चेहरे पर उल्लास, और उत्साह और सुकून। कभी वह दोनों हमारे घर आते कभी हम उनके यहां और लतीफों के ठहाकों में गुजरती शामें जिनकी याद में सलमा सिकन्दरनामा लिखती हैं। या वह नर्सिंग होम की शाम। पुष्पा का पहला जापा, किंशुक होने वाला है, बाहर छत पर मैं उद्विग्न कुर्सी पर बैठा हूं, कृश्न भाई केका की उंगली पकड़े छत पर बेचैनी से टहल रहे हैं और 15-20 मिटन पर मजरूह भाई के घर पर फोन करके सलमा भाभी को दिलासा देते हैं कि जच्चा-बच्चा ठीक हैं घबराना मत। या फिर पहले और दूसरे हार्ट अटैक के वे परेशानीवाले दिन, जब हमारे और राही तथा नय्यर भाभी के दिन-रात उन्हीं के पास बीतते हैं, या उस सांतक्रूज वाले घर में खाने की मेज पर कृश्न भाई बैठे हैं, सलमा भाभी पान बना रही हैं, पर पान खाने की नौबत आए तब ना। कृश्न भाई आम की प्लेट सामने रखकर बैठे हैं। अपने हाथों से आम की पतली-पतली फाँकें बनाकर देते जा रहे हैं। यह लंगड़ा है, या हापुस, यह दशहरी, या सफेदा। कृश्न भाई को फल खाने और खिलाने का बेहद शौक था। और शौक था दोस्तों पर जान छिड़कने का।
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